धोबी घाट पर माँ और मैं -6

(Dhobi Ghat Per Maa Aur Main-6)

This story is part of a series:

मैं भी झाड़ियों के पीछे चला गया और पेशाब करने लगा।
बड़ी देर तक तो मेरे लंड से पेशाब ही नहीं निकला, फिर जब लंड कुछ ढीला पड़ा तब जा के पेशाब निकलना शुरु हुआ। मैं पेशाब करने के बाद वापस पेड़ के नीचे चल पड़ा।

पेड़ के पास पहुंच कर मैंने देखा माँ बैठी हुई थी, मेरे पास आने पर बोली- आ बैठ, हल्का हो आया?
कह कर मुस्कुराने लगी। मैं भी हल्के हल्के मुस्कुराते कुछ शरमाते हुए बोला- हाँ, हल्का हो आया।
और बैठ गया।
मेरे बैठने पर माँ ने मेरी ठुड्डी पकड़ कर मेरा सिर उठा दिया और सीधा मेरी आँखों में झांकते हुए बोली- क्यों रे, उस समय जब मैं छू
रही थी, तब तो बड़ा भोला बन रहा था। और जब मैं पेशाब करने गई थी, तो वहाँ पीछे खड़ा हो के क्या कर रहा था शैतान ?!!

मैंने अपनी ठुड्डी पर से माँ का हाथ हटाते हुए फिर अपने सिर को नीचे झुका लिया और हकलाते हुए बोला- ओह माँ, तुम भी ना !
‘मैंने क्या किया?’ माँ ने हल्की सी चपत मेरे गाल पर लगाई और पूछा।
‘माँ, तुमने खुद ही तो कहा था, हल्का होना है तो आ जाओ।’
इस पर माँ ने मेरे गालों को हल्के से खींचते हुए कहा- अच्छा बेटा, मैंने हल्का होने के लिये कहा था, पर तू तो वहाँ हल्का होने की जगह भारी हो रहा था। मुझे पेशाब करते हुए घूर-घूर कर देखने के लिये तो मैंने नहीं कहा था तुझे, फिर तू क्यों घूर घूर कर मजे लूट रहा था?
‘हाय, मैं कहाँ मजा लूट रहा था, कैसी बातें कर रही हो माँ?’
‘ओह हो… शैतान अब तो बड़ा भोला बन रहा है।’ कह कर हल्के से मेरी जांघों को दबा दिया।
‘हाय, क्या कर रही हो?’
पर उसने छोड़ा नहीं और मेरी आँखों में झांकते हुए फिर धीरे से अपना हाथ मेरे लंड पर रख दिया और फुसफुसाते हुए पूछा- फिर से दबाऊँ?

मेरी तो हालत उसके हाथ के छूने भर से फिर से खराब होने लगी। मेरी समझ में एकदम नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। कुछ जवाब देते हुए भी नहीं बन रहा था कि क्या जवाब दूँ।
तभी वो हल्का सा आगे की ओर सरकी और झुकी, आगे झुकते ही उसका आंचल उसके ब्लाउज़ पर से सरक गया पर उसने कोई प्रयास
नहीं किया उसको ठीक करने का।

अब तो मेरी हालत और खराब हो रही थी। मेरी आंखों के सामने उसकी नारीयल के जैसी सख्त चूचियाँ जिनको सपने में देख कर मैंने ना जाने कितनी बार अपना माल गिराया था, और जिनको दूर से देख कर ही तड़पता रहता था, नुमाया थी।
भले ही चूचियाँ अभी भी ब्लाउत में ही कैद थी, परंतु उनके भारीपन और सख्ती का अंदाज उनके ऊपर से ही लगाया जा सकता था। ब्लाउज़ के ऊपरी भाग से उसकी चूचियों के बीच की खाई का ऊपरी गोरा गोरा हिस्सा नजर आ रहा था।

हालांकि, चूचियों को बहुत बड़ा तो नहीं कहा जा सकता पर उतनी बड़ी तो थी ही, जितनी एक स्वस्थ शरीर की मालकिन की हो सकती हैं। मेरा मतलब है कि इतनी बड़ी जितनी कि आपके हाथों में ना आये, पर इतनी बड़ी भी नहीं की आपको दो-दो हाथों से पकड़नी पड़े, और फिर भी आपके हाथों में ना आये।
माँ की चूचियाँ एकदम किसी भाले की तरह नुकीली लग रही थी और सामने की ओर निकली हुई थी। मेरी आँखें तो हटाये नहीं हट रही
थी।

तभी माँ ने अपने हाथों को मेरे लंड पर थोड़ा जोर से दबाते हुए पूछा- बोल ना, और दबाऊँ क्या?
‘हाय माँ, छोड़ो ना…’
उसने जोर से मेरे लंड को मुठ्ठी में भर लिया।
‘हाय माँ, छोड़ो… बहुत गुदगुदी होती है।’
‘तो होने दे ना, तू बस बोल दबाऊँ या नहीं?’
‘हाय दबाओ माँ, मसलो।’
‘अब आया ना, रास्ते पर!’

‘हाय माँ, तुम्हारे हाथों में तो जादू है।’
‘जादू हाथों में है या !! या फिर इसमें है?’ माँ अपने ब्लाउज़ की तरफ इशारा कर के पूछा।
‘हाय माँ, तुम तो बस!!’
‘शरमाता क्यों है? बोल ना क्या अच्छा लग रहा है?’
‘हाय मम्मी, मैं क्या बोलूँ?’
‘क्यों क्या अच्छा लग रहा है? अरे, अब बोल भी दे, शरमाता क्यों है?’
‘हाय मम्मी दोनों अच्छे लग रहे हैं।’
‘क्या, ये दोनों?’ अपने ब्लाउज़ की तरफ इशारा कर के पूछा।
‘हां, और तुम्हारा दबाना भी।’
‘तो फिर शरमा क्यों रहा था, बोलने में? ऐसे तो हर रोज घूर-घूर कर मेरे अनारों को देखता रहता है।’

फिर माँ ने बड़े आराम से मेरे पूरे लंड को मुठ्ठी के अंदर कैद कर हल्के हल्के अपना हाथ चलाना शुरु कर दिया।
‘तू तो पूरा जवान हो गया है रे!’
‘हाय माँ!’
‘हाय हाय, क्या कर रहा है? पूरा सांड की तरह से जवान हो गया है तू तो, अब तो बरदाश्त भी नहीं होता होगा, कैसे करता है?’
‘हाय माँ, मजे की तो बस पूछो मत, बहुत मजा आ रहा है।’ मैं बोला।

इस पर माँ ने अपना हाथ और तेजी से चलाना शुरु कर दिया और बोली- साले, हरामी कहीं के !!! मैं जब नहाती हूँ, तब घूर घूर के मुझे देखता रहता है। मैं जब सो रही थी तो मेरे चूचे दबा रहा था और अभी मजे से मुठ मरवा रहा है। कमीने, तेरे को शरम नहीं आती?

मेरा तो होश ही उड़ गया, माँ यह क्या बोल रही थी।
पर मैंने देखा कि उसका एक हाथ अब भी पहले की तरह मेरे लंड को सहलाये जा रहा था। तभी माँ, मेरे चेहरे के उड़े हुए रंग को देख कर हंसने लगी और हंसते हुए मेरे गाल पर एक थप्पड़ लगा दिया।

मैंने कभी भी इससे पहले माँ को ना तो ऐसे बोलते सुना था, ना ही इस तरह से बर्ताव करते हुए देखा था इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था।
पर उसके हंसते हुए थप्पड़ लगाने पर तो मुझे और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ कि आखिर यह चाहती क्या है और मैं बोला- माफ कर दो माँ, अगर कोई गलती हो गई हो तो?
इस पर माँ ने मेरे गालों को हल्के सहलाते हुए कहा- गलती तो तू कर बैठा है बेटे, अब केवल गलती की सजा मिलेगी तुझे।’
मैंने कहा- क्या गलती हो गई मेरे से माँ?
‘सबसे बड़ी गलती तो यह है कि तू सिर्फ़ घूर घूर के देखता है बस, करता धरता तो कुछ है नहीं। घूर घूर के कितने दिन देखता रहेगा?’
‘क्या करुँ माँ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।’
‘साले, बेवकूफ की औलाद, अरे करने के लिये इतना कुछ है, और तुझे समझ में ही नहीं आ रहा है।’
‘क्या माँ, बताओ ना ?’
‘देख, अभी जैसे कि तेरा मन कर रहा है की, तू मेरे अनारो से खेले, उन्हे दबाये, मगर तू वो काम ना करके केवल मुझे घूरे जा रहा
है। बोल तेरा मन कर रहा है या नहीं बोलना?’
‘हाय माँ, मन तो मेरा बहुत कर रहा है।’
‘तो फिर दबा ना… मैं जैसे तेरे औजार से खेल रही हूँ, वैसे ही तू मेरे सामान से खेल दबा… बेटा दबा…’

यह कहानी काल्पनिक है मित्रो, और भी आगे खूब मजेदार कहानिया लिखूँगा। आप अपना सुझाव जरूर दें, मुझे मेल जरूर करें!
आपका प्यारा जलगाँव बॉय
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